शायद यह निर्विवाद रूप से नंबर-1 होने का प्रमाण है. शायद वो अहसास कि लोकसभा चुनाव 2019 के लिए यह 'करो या मरो' का समय है.
राहुल गांधी के भाषणों में एक नई धार देखने को मिल रही है.
उनके विश्वास में नयापन दिख रहा है, उस हताश प्रयास से कहीं दूर जब 2013 में एक प्रेस कांफ्रेंस के दौरान राहुल गांधी ने क़ानून और न्याय के अंतर्निहित मुद्दों की समझ के बिना दिल्ली के प्रेस क्लब में अचानक पहुंच कर उस अध्यादेश को ही फाड़ दिया था जो कि दागी सांसदों, विधायकों और जनप्रतिनिधियों को बचाने वाला था.
राहुल गांधी के इस नए विश्वास की कई वजहें हैं. पहली और सबसे महत्वपूर्ण तो ये कि उन्हें विधानसभा चुनावों में जीत मिली है. विचारधारा को समझने की पुष्टि जनता की अदालत से अलग और कहां हो सकती है.
छत्तीसगढ़ की जीत
किसी भी मापदंड से छत्तीसगढ़ में मिली कांग्रेस की आश्चर्यजनक जीत को ही लें. इसकी तुलना पार्टी के उन पिछले प्रदर्शनों से करें, जब पार्टी के पास वहां कहीं अधिक मजबूत नेतृत्व था.
पार्टी ने लोगों के बीच जाकर उनकी परेशानियों को समझा और वर्तमान विधानसभा में जीत के लिए अपने चुनावी घोषणापत्र में उनके (जनता के) विचारों को शामिल किया.
रफ़ाल ख़रीद पर राहुल के हमले
इसी प्रकार, राहुल गांधी ने अर्थव्यवस्था पर कांग्रेस के विचारों को साफ़-साफ़ रखा है. रफ़ाल फाइटर प्लेन की ख़रीद में, कांग्रेस ने मुद्दा उठाया है कि स्टॉक मार्केट में लिस्टेड पब्लिक सेक्टर की कंपनी हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) को दरकिनार कर विदेशी (फ़्रांसीसी) कंपनी को साझेदार बनाने के लिए दबाव डाला गया, उस निजी भारतीय कंपनी को जिसे रक्षा उत्पादन का कोई पिछला अनुभव नहीं था.
एक निश्चित आय सीमा से नीचे के लोगों के लिए केंद्र से न्यूनतम आय की गारंटी देने का उनका प्रस्ताव निस्संदेह एक मास्टर स्ट्रोक था- इसने केंद्र को तुरंत ही कुछ उपाय करने पर मजबूर कर दिया.
यह कुछ साल पहले भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविन्द सुब्रमण्यम के 'यूनिवर्सल बेसिक इनकम' (UBI) की बात का ही संशोधित रूप था. राहुल ने उनके आइडिया से ही प्रेरणा ली.
दूसरा यह कि राहुल गांधी के पास पार्टी के उपाध्यक्ष के रूप में इतना वक्त था कि उन्होंने अपने दल का पूरा आकलन करते हुए यह तय करें कि किसे कौन सा काम सौंपना है.
सीपी जोशी पूर्वोत्तर के प्रभारी थे लेकिन राहुल के खांचे में फिट नहीं हो सके, आदिवासी पहचान के जटिल मुद्दों पर उन्हें या तो बहुत कम या कोई सहानुभूति नहीं थी. इसमें समय लगा, लेकिन अब उन्हें राजस्थान विधानसभा के अध्यक्ष के रूप में वो काम सौंप दिया गया है, जहां उनके बेहतर होने की ही संभावना है.
इसी प्रकार अब उनके पास कई ऐसे सलाहकार हैं जिनके पास अर्थव्यवस्था और राजनीतिक ताने बाने का अनुभव है.
तीसरा, अब प्रशासनिक गतिविधियों से वो पहले से अधिक परिचित हैं. कई लोगों ने यह आकलन किया कि अगर राहुल गांधी ने मनमोहन सिंह सरकार में मंत्री पद की पेशकश को स्वीकार कर लिया होता, तो उनकी धार और तेज़ होती.
कम से कम उन्हें यह तो पता होता कि सरकार काम कैसे करती है, इससे उन्हें भारत को चलाने वाले सिस्टम को समझने में उन्हें आसानी होती.
लेकिन अब, भारत के कई राज्यों में उनकी अपनी सरकारों के साथ सीधे बातचीत की वजह से, और पार्टी में बैकअप रिसर्च सिस्टम की वजह से, उन्हें देश को चलाने की पहले से बेहतर जानकारी है.
अब वो शर्मिंदा करने वाली भूल नहीं करते, जिसकी वजह से कभी समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने राहुल गांधी को यूपी में उगने वाले पांच प्रकार के पेड़ों के नाम हिंदी में बताने की चुनौती दी थी.
सैम पित्रोदा और अन्य की बर्कले में आयोजित गांधी की बातचीत में यह सबसे स्पष्ट रूप से दिखा. वहां, उन्होंने नेहरू-गांधी वंश का होने पर माफ़ी नहीं मांगी, आरोपों को दरकिनार करते हुए उन्होंने कहा था कि "हम पर ही मत जाइए... पूरे देश में ही ऐसा हो रहा है."
सिंगापुर में, उन्होंने परिवार के राज की आलोचनाओं को दरकिनार करते हुए कहा कि उनके परिवार को बहुत सारा श्रेय दिया जा रहा है.
उन्होंने अपनी बहन प्रियंका को उत्तर प्रदेश के एक छोटे से टुकड़े के प्रभारी के तौर पर पार्टी का महासचिव बनने के लिए आमंत्रित किया, लेकिन यह फ़ैसला तब किया जब वहां सपा और बसपा के बीच गठबंधन के ऐलान हो गया और उनके पास चुनाव में अकेले उतरने का ही विकल्प बचा था.
यह वो ही प्रियंका हैं जिन्होंने राहुल और कांग्रेस को उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी (सपा) के साथ गठबंधन करने के लिए मनाया था.
राहुल गांधी का स्पष्ट तौर पर यह मानना है कि हर किसी को कम-से-कम एक राजनीतिक ग़लती करने का अधिकार है.
राहुल गांधी के भाषणों में एक नई धार देखने को मिल रही है.
उनके विश्वास में नयापन दिख रहा है, उस हताश प्रयास से कहीं दूर जब 2013 में एक प्रेस कांफ्रेंस के दौरान राहुल गांधी ने क़ानून और न्याय के अंतर्निहित मुद्दों की समझ के बिना दिल्ली के प्रेस क्लब में अचानक पहुंच कर उस अध्यादेश को ही फाड़ दिया था जो कि दागी सांसदों, विधायकों और जनप्रतिनिधियों को बचाने वाला था.
राहुल गांधी के इस नए विश्वास की कई वजहें हैं. पहली और सबसे महत्वपूर्ण तो ये कि उन्हें विधानसभा चुनावों में जीत मिली है. विचारधारा को समझने की पुष्टि जनता की अदालत से अलग और कहां हो सकती है.
छत्तीसगढ़ की जीत
किसी भी मापदंड से छत्तीसगढ़ में मिली कांग्रेस की आश्चर्यजनक जीत को ही लें. इसकी तुलना पार्टी के उन पिछले प्रदर्शनों से करें, जब पार्टी के पास वहां कहीं अधिक मजबूत नेतृत्व था.
पार्टी ने लोगों के बीच जाकर उनकी परेशानियों को समझा और वर्तमान विधानसभा में जीत के लिए अपने चुनावी घोषणापत्र में उनके (जनता के) विचारों को शामिल किया.
रफ़ाल ख़रीद पर राहुल के हमले
इसी प्रकार, राहुल गांधी ने अर्थव्यवस्था पर कांग्रेस के विचारों को साफ़-साफ़ रखा है. रफ़ाल फाइटर प्लेन की ख़रीद में, कांग्रेस ने मुद्दा उठाया है कि स्टॉक मार्केट में लिस्टेड पब्लिक सेक्टर की कंपनी हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) को दरकिनार कर विदेशी (फ़्रांसीसी) कंपनी को साझेदार बनाने के लिए दबाव डाला गया, उस निजी भारतीय कंपनी को जिसे रक्षा उत्पादन का कोई पिछला अनुभव नहीं था.
एक निश्चित आय सीमा से नीचे के लोगों के लिए केंद्र से न्यूनतम आय की गारंटी देने का उनका प्रस्ताव निस्संदेह एक मास्टर स्ट्रोक था- इसने केंद्र को तुरंत ही कुछ उपाय करने पर मजबूर कर दिया.
यह कुछ साल पहले भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविन्द सुब्रमण्यम के 'यूनिवर्सल बेसिक इनकम' (UBI) की बात का ही संशोधित रूप था. राहुल ने उनके आइडिया से ही प्रेरणा ली.
दूसरा यह कि राहुल गांधी के पास पार्टी के उपाध्यक्ष के रूप में इतना वक्त था कि उन्होंने अपने दल का पूरा आकलन करते हुए यह तय करें कि किसे कौन सा काम सौंपना है.
सीपी जोशी पूर्वोत्तर के प्रभारी थे लेकिन राहुल के खांचे में फिट नहीं हो सके, आदिवासी पहचान के जटिल मुद्दों पर उन्हें या तो बहुत कम या कोई सहानुभूति नहीं थी. इसमें समय लगा, लेकिन अब उन्हें राजस्थान विधानसभा के अध्यक्ष के रूप में वो काम सौंप दिया गया है, जहां उनके बेहतर होने की ही संभावना है.
इसी प्रकार अब उनके पास कई ऐसे सलाहकार हैं जिनके पास अर्थव्यवस्था और राजनीतिक ताने बाने का अनुभव है.
तीसरा, अब प्रशासनिक गतिविधियों से वो पहले से अधिक परिचित हैं. कई लोगों ने यह आकलन किया कि अगर राहुल गांधी ने मनमोहन सिंह सरकार में मंत्री पद की पेशकश को स्वीकार कर लिया होता, तो उनकी धार और तेज़ होती.
कम से कम उन्हें यह तो पता होता कि सरकार काम कैसे करती है, इससे उन्हें भारत को चलाने वाले सिस्टम को समझने में उन्हें आसानी होती.
लेकिन अब, भारत के कई राज्यों में उनकी अपनी सरकारों के साथ सीधे बातचीत की वजह से, और पार्टी में बैकअप रिसर्च सिस्टम की वजह से, उन्हें देश को चलाने की पहले से बेहतर जानकारी है.
अब वो शर्मिंदा करने वाली भूल नहीं करते, जिसकी वजह से कभी समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने राहुल गांधी को यूपी में उगने वाले पांच प्रकार के पेड़ों के नाम हिंदी में बताने की चुनौती दी थी.
सैम पित्रोदा और अन्य की बर्कले में आयोजित गांधी की बातचीत में यह सबसे स्पष्ट रूप से दिखा. वहां, उन्होंने नेहरू-गांधी वंश का होने पर माफ़ी नहीं मांगी, आरोपों को दरकिनार करते हुए उन्होंने कहा था कि "हम पर ही मत जाइए... पूरे देश में ही ऐसा हो रहा है."
सिंगापुर में, उन्होंने परिवार के राज की आलोचनाओं को दरकिनार करते हुए कहा कि उनके परिवार को बहुत सारा श्रेय दिया जा रहा है.
उन्होंने अपनी बहन प्रियंका को उत्तर प्रदेश के एक छोटे से टुकड़े के प्रभारी के तौर पर पार्टी का महासचिव बनने के लिए आमंत्रित किया, लेकिन यह फ़ैसला तब किया जब वहां सपा और बसपा के बीच गठबंधन के ऐलान हो गया और उनके पास चुनाव में अकेले उतरने का ही विकल्प बचा था.
यह वो ही प्रियंका हैं जिन्होंने राहुल और कांग्रेस को उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी (सपा) के साथ गठबंधन करने के लिए मनाया था.
राहुल गांधी का स्पष्ट तौर पर यह मानना है कि हर किसी को कम-से-कम एक राजनीतिक ग़लती करने का अधिकार है.
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